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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


बेटों वाली विधवा मुंशी प्रेम चंद

3
फूलमती रात को भोजन करके लेटी थी कि उमा और दया उसके पास जा कर बैठ गये। दोनों ऐसा मुँह बनाए हुए थे, मानो कोई भारी विपत्ति आ पड़ी है। फूलमती ने सशंक होकर पूछा- 'तुम दोनों घबड़ाये हुए मालूम होते हो?'

उमा ने सिर खुजलाते हुए कहा- 'समाचार-पत्रों में लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है अम्माँ! कितना ही बचकर लिखो, लेकिन कहीं-न-कहीं पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पाँच हज़ार की जमानत माँगी गयी है। अगर कल तक जमा न कर दी गयी, तो गिरफ़्तार हो जायेंगे और दस साल की सज़ा ठुक जायेगी।'
फूलमती ने सिर पीटकर कहा- 'ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीं हो, आजकल हमारे अदिन आए हुए हैं। जमानत किसी तरह टल नहीं सकती?'
दयानाथ ने अपराधी-भाव से उत्तर दिया- 'मैंने तो अम्माँ, ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी; लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम ज़िला इतना कड़ा है कि ज़रा भी रियायत नहीं करता। मैंने जितनी दौड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।'
‘तो तुमने कामता से रुपये का प्रबन्ध करने को नहीं कहा?’
उमा ने मुँह बनाया- 'उनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्माँ, उन्हें रुपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाये, वह एक पाई न देंगे।'
दयानाथ ने समर्थन किया- 'मैंने तो उनसे इसका ज़िक्र ही नहीं किया।'
फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा- 'चलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं? रुपये इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़कर रखने के लिए?'
उमानाथ ने माता को रोककर कहा- 'नहीं अम्माँ, उनसे कुछ न कहो। रुपये तो न देंगे, उल्टे और हाय-हाय मचायेंगे। उनको अपनी नौकरी की ख़ैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चर्य नहीं।'
फूलमती ने लाचार होकर कहा- 'तो फिर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं है। हाँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं गिरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।'
दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोला- 'यह तो नहीं हो सकता अम्माँ, कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-पाँच साल की क़ैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ!'
फूलमती छाती पीटते हुए बोली- 'कैसी बातें मुँह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तुम्हें कौन गिरफ़्तार कर सकता है! उसका मुँह झुलस दूँगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और किसी दिन के लिए! जब तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या आग में झोकूँगीं!'
उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।
दया ने उमा की ओर जैसे फरियाद की आँखों से देखा और बोला- 'आपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्माँ को बताने की ज़रूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ?'
उमा ने जैसे सिफारिश करते हुए कहा- 'यह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्माँ को खबर न होती। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल लेता; मगर अब करना क्या चाहिए, यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता। न तो यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्माँ के गहने गिरों रखे जायें।'
फूलमती ने व्यथित कंठ से पूछा- 'क्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज़्यादा प्यारे हैं? मैं तो प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दूँ, गहनों की बिसात ही क्या है।'
दया ने दृढ़ता से कहा- 'अम्माँ, तुम्हारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े। जब आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका, तो किस मुँह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊँ? मुझ जैसे कपूत को तो तुम्हारी कोख से जन्म ही न लेना चाहिए था। सदा तुम्हें कष्ट ही देता रहा।'

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